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मैं जो थक जाऊं तो परछाईं को चलता देखूं…

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हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के

… इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
…………….

हिंदी फिल्मों के जो चंद गिने चुने गीत आज भी जेहन में हैं, उनमें भी शहरयार ही हैं–

ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें
………………….

और आखिर में शहरयार के सपने को दिल के बहुत भीतर से उठी एक सच्ची तड़प का सलाम—–

एक ही धुन है कि इस रात को ढलता देखूं
अपनी इन आंखों से सूरज को निकलता देखूं
ये जुनूं तुझसे तकाजा यही दिल का मेरे
शहरे उम्मीद के नक्शे को बदलता देखूं
ये सफर वो है कि रुकने का मुकाम इसमें नहीं
मैं जो थक जाऊं तो परछाईं को चलता देखूं
………………………..

और शहरयार यहां भी–

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूं कितना है
नोके खंजर ही बताएगी लहू कितना है
जमा जो करते रहे अपने को जर्रा-जर्रा
वो ये क्या जानें बिखरने में सुकूं कितना है।
…………….

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